कोई यूं ही नहीं मर्यादा पुरुषोत्तम बन जाता

  • कृष्णा द्विवेदी
    आज विजयदशमी है। आज का दिन बांस की फट्टियों पर रंग-विरंगे कागज चिपकाकर रावण, कुम्भकर्ण एवम मेघनाद के पुतले बनाकर सिर्फ उनको दहन करने के लिए नहीं याद किया जाता है वरन आज न्याय की अन्याय पर, सत्य की असत्य पर एवम धर्म की अधर्म पर अप्रत्याशित विजय का प्रमाण दिवस है। एक चक्रवर्ती सम्राट के युवराज का राज्याभिषेक के समय चौदह वर्ष के वनगमन हेतु वल्कल वस्त्र धारण कर सहर्ष तैयार हो जाना क्या इतना ही आसान है, जितना सुनने में लगता है ? मात्र चित्रों में वन एवम वन्य जीवों को देखकर डरने वाली सीता माता का साक्षात वन जाना तथा निर्दोष लक्ष्मण का भ्रातृ प्रेमवश उनका अनुसरण करना, क्या वास्तव में इतना सरल था या आज भी है ? अपने राज्य से बाहर होने से वापस आने तक कितनी तकलीफ और मुश्किलों का सामना राम को करना पड़ा मगर वो न अपने धर्म से डिगे और न ही उन्होंने किसी सम्बन्धी या रिश्तेदार से कोई सहायता मांगी।
    रास्ते मे जो भी शोषित, दलित, दु:खी, प्रताणित या निर्वासित मिले, वे ही राम के लिए अपना जीवन न्योछावर करने वाले उनके परम मित्र बन गए। क्या गजब का धैर्य, आत्मविश्वास और प्रबंधन क्षमता थी राम में, जिसके सहारे उन्होंने भीरू जीवन बिताने वाले अपने सखाओं के अंदर इतना प्रबल विश्वास भर दिया कि वो छोटे-मोटे शत्रुओं को छोडि़ए, लंका जैसी सेना को परास्त करने में सक्षम हो गए। राजनीति, धर्मनीति या युद्धनीति हो, राम सब पर शत-प्रतिशत खरे उतरे हैं। विश्व के इतिहास में एक भी उदाहरण नहीं मिलता है जिसमे किसी भी महापुरुष ने युद्ध से पहले अपने शत्रु को इतना सुधरने का अवसर दिया हो तथा एक भी पात्र ऐसा नहीं मिलता है जो अपने कार्य के साथ-साथ शत्रु के कल्याण की भी कामना करता हो (काज हमार तासु हित होई, रिपु सन किहेव बतकही सोई)
    शत्रु को भी कैसे सम्मान दिया जाता है, यह कोई राम से सीखे। बालि के मृत्यु का समय हो,वैद्य सुखेन हों, सुलोचना प्रसंग हो या रावण की मृत्यु के क्षण, राम ने जो व्यवहार किया है वह पूरे व्रह्माण्ड में अद्वितीय है। किष्किंधा हो या लंका का समृद्ध राज्य, वह राम ही हैं जिन्होंने उनको जीतकर उनके समुचित उत्तराधिकारियों को ससम्मान वापस सौंप दिया। दु:ख तब होता है जब जिनके नाम उनके मां बाप ने रामनाम से मिलता-जुलता रखा है और वे अपने निजी स्वार्थों हेतु राम के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगाए घूम रहे हैं। इस कलियुग में भी राम नाम की इतनी महत्तता है कि वह सत्ता दे भी सकता है और सत्ता से बाहर भी कर देता है। आप राम को अवतार मत मानिए लेकिन उनके एक पुरुष से महापुरुष तक के सफर को कौन इनकार कर सकता है। राम के अंदर वह आत्मा थी जो महात्मा के मार्ग से होते हुए परमात्मा के समक्ष खड़ी हो जाती है और अयोधया के राजा दशरथ का बड़ा पुत्र जन-जन का महानायक बन जाता है।
  • अयोध्या की खदान से निकला राम रूपी कोयला चौदह वर्ष वनवास में इतना तप जाता है कि वापस आने पर वह व्रह्माण्ड का अद्वितीय हीरा बन जाता है। वह धर्म, सत्य और मर्यादा का साक्षात स्वरूप बन जाता है। वन गमन करने वाले राम वापसी में श्री राम और अयोध्या तक पहुंचकर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम बन जाते हैं।
    ऐसे जन-जन के नायक व्रह्माण्ड नियंता मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के कमलवत चरणों मे कोटिश: नमन। आप सभी को विजयदशमी की हार्दिक शुभकामनाएं।
  • (लेखक चितंक व वरिष्ठ समाजसेवी हैं।)

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